वेद MCQ Quiz in বাংলা - Objective Question with Answer for वेद - বিনামূল্যে ডাউনলোড করুন [PDF]

Last updated on Apr 6, 2025

পাওয়া वेद उत्तरे आणि तपशीलवार उपायांसह एकाधिक निवड प्रश्न (MCQ क्विझ). এই বিনামূল্যে ডাউনলোড করুন वेद MCQ কুইজ পিডিএফ এবং আপনার আসন্ন পরীক্ষার জন্য প্রস্তুত করুন যেমন ব্যাঙ্কিং, এসএসসি, রেলওয়ে, ইউপিএসসি, রাজ্য পিএসসি।

Latest वेद MCQ Objective Questions

Top वेद MCQ Objective Questions

वेद Question 1:

माण्डूकायनी शाखा कस्य वेदस्य विद्यते?

  1. ऋग्वेदस्य
  2. यजुर्वेदस्य
  3. अथर्ववेदस्य
  4. सामवेदस्य

Answer (Detailed Solution Below)

Option 1 : ऋग्वेदस्य

वेद Question 1 Detailed Solution

प्रश्न का हिंदी भाषांतर : 'माण्डूकायनी' शाखा किस वेद से संबंधित है?

वेद - शाखा :

  • मूलवस्तु से निकले हुए विभाग अथवा अंग को शाखा कहते हैं - जैसे वृक्ष की शाखा।
  • वैदिक साहित्य के संदर्भ में वैदिक शाखा शब्द से उन विशेष परंपराओं का बोध होता है जो गुरु-शिष्य-प्रणाली, देशविभाग, उच्चारण की भिन्नता, काल एवं विशेष परिस्थितिजन्य कारणों से चार वेदों के भिन्न-भिन्न पाटों के रूप में विकसित हुई।
  • शाखाओं को कभी कभी 'चरण' भी कहा जाता है।
  • इन शाखाओं का विवरण शौनक के चरणव्यूह और पुराणों में विशद रूप से मिलता है।

ऋग्वेद की शाखाएँँ :

पतंजलि के महाभाष्य के अनुसार ऋग्वेद की कदाचित 21 शाखाएं थीं। इनमें से 'चरणव्यूह' नामक ग्रन्थ में उल्लखित ये पांच शाखाएं प्रमुख मानी जाती हैं-

  • शाकल
  • बाष्कल
  • आश्वलायनी
  • शांखायनी 
  • माण्डूकायनी

सम्प्रति ऋग्वेद की एक शाकल शाखा की संहिता ही प्राप्त होती है।

​अतः स्पष्ट है, की "ऋग्वेदस्य" यह इस प्रश्न का सही उत्तर है।

वेद Question 2:

माध्यन्दिनशाखायाः अपरनाम किं प्रचलितमस्ति?

  1. कैथुमशाखा
  2. बौधायनीशाखा
  3. वाजसनेयिशाखा                                                              
  4. मैत्रायणीशाखा

Answer (Detailed Solution Below)

Option 3 : वाजसनेयिशाखा                                                              

वेद Question 2 Detailed Solution

प्रश्नानुवाद- माध्यन्दिन शाखा का अपर नाम क्या प्रचलित है?

स्पष्टीकरण- माध्यन्दिन शाखा का अपर नाम वाजसनेयि शाखा प्रचलित है। 

वाजसनेयि शाखा- 

  • माध्यन्दिन शाखा शुक्ल यजुर्वेद की शाखा है। कण्व इस वेद की एक अन्य शाखा है। इसका प्रचार प्रायः दक्षिण भारत में है। माध्यन्दिन शाखा का प्रचार प्राचीन काल में केवल उत्तर प्रदेश में था। किन्तु, यह आज समस्त उत्तर भारत में प्रचलित है। इसमें 40 अध्याय हैं। 
  • आरम्भ के दोनों अध्यायों में दर्श तथा पौर्णमास यज्ञों से सम्बंध मन्त्रों का वर्णन है। तीसरे अध्याय में अग्निहोत्र तथा चातुर्मास्य के लिए उपयोगी मंत्रो का वर्णन है। चतुर्थ से लेकर अष्टम अध्याय तक सोमयागों का वर्णन है। 
  • इसके अनन्तर आठ अध्यायों तक होमग्नि के लिए वेदीनिर्माण का वर्णन है। 16वें अध्याय में शतरुद्रीय होम का प्रसंग है, जिसमें रुद्र की कल्पना का बड़ा ही सांगोपांग विवेचन मिलता है। 18 वें अध्याय में ‘वासोर्धारा’ सम्बन्धी मन्त्र निर्दिष्ट है। 
  • इसके अनन्तर तीन अध्यायों में सौत्रामणि यज्ञ का विधान है। अध्याय 22 से अध्याय 25 तक अश्वमेध के विशिष्ट मंत्रो का निर्देश है। अध्याय 26 से अध्याय 29 तक खिल मन्त्रों संकलन है, जिससे पूर्व-निर्दिष्ट अनुष्ठानों के विषय में नवीन मन्त्र दिए गए हैं। 
  • 30वें अध्याय में ‘पुरुष मेध’ का वर्णन है। 31वें अध्याय में प्रसिद्ध पुरुष सूक्त है।अध्याय 32 के आरम्भ में हिरण्यगर्भ सूक्त के भी कतिपय मन्त्र उदधृत हैं।अध्याय 33 में ‘सर्वमेध’ के मन्त्र उल्लिखित है। 
  • 34वें अध्याय में शिव संकल्प सूक्त के मन्त्र है। 35वें अध्याय में पितृमेध सम्बन्धी मंत्रो का संकलन है। अध्याय 36 से अध्याय 38 तक प्रवर्ग्ययाग का विशद वर्णन है।

वेद Question 3:

समानी व आकूतिः _____ हृदयानि वः। मन्त्रांशस्य रिक्तस्थानं समुचितपदेन पूरयत-

  1. समानम्
  2. समानः
  3. समानानि
  4. समाना

Answer (Detailed Solution Below)

Option 4 : समाना

वेद Question 3 Detailed Solution

अनुवाद - समानी व आकूतिः _____ हृदयानि वः। मन्त्रांश के रिक्तस्थान को समुचित पद से पूरा करें-

स्पष्टीकरण

  • चतुर्वेदों में ऋग्वेद अत्यंत प्राचीन वेद है, जो अपौरुषेय है।
  • ऋग्वेद में दस मण्डल हैं।
  • उपर्युक्त मंत्रांश ऋग्वेद के दशम मण्डल के 191 सूक्त का अन्तिम मन्त्र है। 

जो इस प्रकार है -

समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।

समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।

  • अर्थ - तुम्हारा उद्देश्य समान हो, तुम्हारा हृदय एक समान हो, तुम्हारा मन समान हो, जिससे तुम्हारे कार्य सुसंगठित हो।

 

अतः उपर्युक्त मन्त्र में रिक्त स्थान में समाना पद सही विकल्प होगा।

वेद Question 4:

"सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्। स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्।।" इति मन्त्रेण सम्बद्ध देवता?

  1. पुरुषः
  2. हिरण्यगर्भः
  3. रुद्रः
  4. पृथिवी

Answer (Detailed Solution Below)

Option 1 : पुरुषः

वेद Question 4 Detailed Solution

प्रश्न अनुवाद- 'सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्। स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्'- यह मन्त्र से सम्बंधित देवता कौन है?

स्पष्टीकरण- 

  • पुरुषसूक्त [ऋ.10.90] एक दार्शनिक सूक्त है। इसमें वैश्विक यज्ञकी संकल्पना स्पष्ट की गयी है। 
  • इसमें त्रिष्टुप् व अनुष्टुप् छंदों का प्रयोग हुआ है।
  • इसमें कुल 16 ऋचाएं है। इसमें वर्णित पुरुष ही उपनिषदों के विचार में वर्णित ब्रह्म की कल्पना है।
  • इस सूक्त की देवता पुरुष और ऋषि नारायण है।

ऋचा -

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।

स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ (ऋ.१०.९०.१)

अर्थ: विराडाख्य पुरुष अनन्त शिरों से युक्त अनन्त आँखों से युक्त अनन्त पादों से युक्त है। वो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर भी दशांगुल परिमिल स्थान  में भी विद्यमान है। अर्थात् वह ब्रह्माण्ड से भी बाहर बैठा है।

इस प्रकार 'सहस्त्रशीर्षा ....... वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्।' यह मन्त्रांश पुरुष सूक्त से लिया गया है जिसके देवता पुरुष ही है।

वेद Question 5:

ऋग्वेदे सोमपा कं कथ्यते? 

  1. वरुणदेवः
  2. इन्द्रदेवः
  3. हिरण्यगर्भदेवः
  4. अक्षदेवः

Answer (Detailed Solution Below)

Option 2 : इन्द्रदेवः

वेद Question 5 Detailed Solution

प्रश्न का हिंदी भाषांतर : ऋग्वेद में 'सोमपा' किसे कहा जाता है?

इन्द्र देवता :

  • सोमपा इंद्र देवता का विशेषण है। सोम यह इंद्र का पेय है।
  • यः सोमपा’ कह कर ऋषि ने भगवान इन्द्र की दुर्व्यसन-परता की ओर भी इंगित किया है।
  • ‘सोम’ भगवान इन्द्र का परमप्रिय पेय पदार्थ है। उसके बराबर कोई अन्य देवता सोम-पान नहीं कर सकता।
  • ‘सोम’ उसे युद्धों के लिए शक्ति और स्फूर्ति प्रदान करता है। सोम-सेवी होने के कारण भगवान इन्द्र को वे लोग परमप्रिय हैं, जो सोम का अभिषव करते हैं अथवा पका कर उसे सिद्ध करते हैं। ऐसे लोगों की वह रक्षा करते है।
  • सोमपान करके इन्द्र शत्रु पर विजय प्राप्त करता है
  • इंद्र विकट रूप से सोमरस का पान करता है। उससे उसे स्फूर्ति मिलती है। वृत्र के साथ युद्धके अवसर पर पूरे तीन सरोवरों को उसने पीकर सोम-रहित कर दिया था।
  • दशम मण्डल के 119वें सूक्त में सोम पीकर मदविह्वल बने हुए स्वगत भाषण के रूप में अपने वीर-कर्मों और शक्ति का अहम्मन्यतापूर्वक वर्णन करते हुए भगवान इन्द्र को देखा जा सकता है। सोम के प्रति विशेष आग्रह के कारण ही उसे सोम का अभिषव करने वाले अथवा उसे पकाने वाले यजमान का रक्षक बतलाया गया है।

अतः स्पष्ट है, की "इन्द्रदेवःयह इस प्रश्न का सही उत्तर है।

वेद Question 6:

ऋग्वेदे एतावन्तः भागाः सन्ति ।

  1. नव
  2. षट्
  3. सप्त
  4. अष्टौ

Answer (Detailed Solution Below)

Option 4 : अष्टौ

वेद Question 6 Detailed Solution

प्रश्नानुवाद - ऋग्वेद का कितने भाग है?

स्पष्टीकरण - 

ऋग्वेदे अष्टौ भागाः सन्ति ।

ऋग्वेद का आठ भाग है।

क्योंकि, अष्टक क्रम में समस्त ऋग्वेद को आठ अष्टकों में विभक्त किया गया है । प्रत्येक अष्टक में आठ अध्याय है, प्रत्येक अध्याय को अध्ययन की सुविधा के लिये वर्गों में बांटा गया है । इस कार ऋग्वेद में 8 अष्टक, 64 अध्याय और 2006 वर्ग हैं ।

वेद Question 7:

'अग्निर्वै देवानां मुखम्' इति कथम्?

  1. हविर्भक्षणात् 
  2. भोजनपाचनात् 
  3. वनदहनात् 
  4. प्रकाशन-साधनात् 

Answer (Detailed Solution Below)

Option 1 : हविर्भक्षणात् 

वेद Question 7 Detailed Solution

प्रश्न का हिंदी भाषांतर : 'अग्निर्वै देवानां मुखम्' यह कैसे स्पष्ट किया जा सकता है?

  • प्रस्तुत पंक्ति का अर्थ - अग्नि देवताओंं का मुख है।
  • संदर्भ - शतपथ ब्राह्मण : कांड ३, अध्याय ९, ब्राह्मण १, मंत्र ६.
  • अग्नि यज्ञ में आहुती ग्रहण करके देवताओं तक पहुँँचाता है। देवताएँँ अग्नि के द्वारा अपने आहुती का भक्षण करतेंं हैंं।
  • पुरुषसूक्त में भी अग्नि की उत्पत्ति विराटपुरुष के मुख से बताई गई है। पुरुष सूक्त के अनुसार अग्नि और इन्द्र जुडवां भाई हैं।
    • मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च।

अतः आहुती भक्षण करने के कारण यह स्पष्ट है, 'हविर्भक्षणात्' यह इस प्रश्न का सही उत्तर है। 

अग्नि देवता :

  • अग्नि शब्द “अगि गतौ” (भ्वादि. ५.२) धातु से बना है। गति के तीन अर्थ हैं – ज्ञान, गमन और प्राप्ति। इस प्रकार विश्व में जहाँ भी ज्ञान, गति, ज्योति, प्रकाश, प्रगति और प्राप्ति है, वह सब अग्नि के ही रूप है, अथवा यह सब अग्नि के प्रभाव से मिलता है। 
  • ​देवताओं में अग्नि का सबसे प्रमुख स्थान है और इन्द्र के पश्चात अग्नि देव का ही पूजनीय स्थान है। अग्निदेव नेतृत्व शक्ति से सम्पन्न, यज्ञ की आहुतियों को ग्रहण करने वाले तथा तेज एवं प्रकाश के अधिष्ठाता हैं। मातरिश्वा भृगु तथा अंगिरा इन्हें भूतल पर लाये। अग्नि पार्थिव देव हैं। यज्ञाग्नि के रूप में इनका मूर्तिकरण प्राप्त होता है। अतः ये ही ऋत्विक, होता और पुरोहित हैंअग्नि द्यावापृथ्वी के पुत्र हैं।
  • अग्नि दो अरणियों के संघर्षण से उत्पन्न होते हैं। इनके लिए अन्य की आवश्यकता नहीं है। इसका अभिप्राय यह है कि अग्नि का जन्म, अग्नि से ही हुआ है। 
  • अग्नि की पीठ घृत से निर्मित है- घृतपृष्ठ।  इनका मुख घृत से युक्त है - घृतमुख। इनकी जिह्वा द्युतिमान् है। दाँत स्वर्णिम, उज्ज्वल तथा लोहे के समान हैं। केश और दाढी भूरे रंग के हैं। जबडे तीखें हैं, मस्तक ज्वालामय है। इनके तीन सिर और सात रश्मियाँ हैं। इनके नेत्र घृतयुक्त हैं। इनका रथ सुनहरा और चमकदार है जिसे दो या दो से अधिक घोडे खींचते हैं। अग्नि अपने स्वर्णिम रथ में यज्ञशाला में बलि (हवि) ग्रहण करने के लिए देवताओं को बैठाकर लाते हैं। वे अपने उपासकों के सदैव सहायक हैं।
  • सँख्या की दृष्टि से इंद्र (२५०श्लोक) के बाद अग्नि (२००श्लोक) का ही स्थान है, किन्तु महत्ता की दृष्टि से अग्नि का सर्वप्रमुख स्थान है। स्वतन्त्र रूप से अग्नि का २०० सूक्तों में स्तवन किया गया है। सामूहिक रूप से अग्नि का २४८३ सूक्तों में स्तवन किया गया है। अग्नि पृथ्वी स्थानीय देवता है। इनका पृथ्वी लोक में प्रमुख स्थान है।
  • अग्नि का प्रयोजन दुष्टात्माओं और आक्रामक, अभिचारों को समाप्त करना है। अपने प्रकाश से राक्षसों को भगाने के कारण ये रक्षोंहन् कहे गए हैं। देवों की प्रतिष्ठा करने के लिए अग्नि का आवाहन किया जाता है

वेद Question 8:

'नीतिमञ्जरी' प्रतिपाद्यविषयाः केन सम्बद्धाः?

  1. ऋग्वेदेन
  2. कृष्णयजुर्वेदेन
  3. सामवेदेन
  4. अथर्ववेदेन

Answer (Detailed Solution Below)

Option 1 : ऋग्वेदेन

वेद Question 8 Detailed Solution

प्रश्न का हिंदी भाषांतर : 'नीतिमंजरी' के प्रतिपाद्य विषय किस से संबंधित हैंं?

नीतिमंजरी : 

  • नीतिमंजरी दीया द्विवेद लिखित एक विद्वत्तापूर्ण, नीतिपर ग्रंथ है।
  • दीया द्विवेद वैदिक साहित्य की लगभग सभी शाखाओं में पारंगत थे और साथ ही साथ संस्कृत साहित्य के कई विभागों से भी काफी परिचित थे।
  • मुख्य रूप से नीतिमंजरी उन जैसे सूक्ति और उपदेशात्मक छंदों का एक सुंदर गुच्छा है, जो नीतिपर कथाग्रंथोंं के सदृश है 
  • लेखक इस में ऋग्वेद की  किंवदंतियों का एक अच्छा संग्रह बनाते हैं और इस प्रकार वैदिक पौराणिक कथाओं का नया रूप स्थापन करतेंं हैं।
  • यह ऋग्वेद के अध्ययन के लिए सामग्री प्रदान करके  सामान्य रूप से तुलनात्मक पौराणिक कथाओं और विशेष रूप से वैदिक पौराणिक कथाओं के अध्ययन में विशेष योगदान देता है।
  • यह एक ही समय में आंतरिक मूल्य के नैतिक सिद्धांतों के कारण लोकप्रिय है और लौकिक ज्ञान की शिक्षा द्वारा शिक्षाप्रद है, जो प्राचीन ऋषियों और देवताओं के उपयुक्त चित्रण द्वारा मनोरंजक भी है

 

​अतः स्पष्ट है, की "ऋग्वेदेन" यह इस प्रश्न का सही उत्तर है।

वेद Question 9:

'मा नो वधाय हत्नवे जिहीव्ठानस्य रीरधः।' - अत्र स्तूयमानो देवः कः?

  1. रुद्रः
  2. वरुणः
  3. अग्निः
  4. मित्रः

Answer (Detailed Solution Below)

Option 2 : वरुणः

वेद Question 9 Detailed Solution

प्रश्न का हिंदी भाषांतर : 'मा नो वधाय हत्नवे जिहीव्ठानस्य रीरधः।'' - यहाँ किस देव की स्तुति की है?

मंत्र : 

संपूर्ण मंत्र : 

  • मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः । मा हृणानस्य मन्यवे।।

ऋषि - शुनःशेप आजीगर्ति
देवता - वरुण
छन्द -  गायत्री

अर्थ :  

पदार्थ -

  • हे वरुण जगदीश्वर ! आप जो (जिहीळानस्य) अज्ञान से हमारा अनादर करे, उसके (हत्नवे) मारने के लिये (नः) हम लोगों को कभी (मा रीरधः) प्रेरित और इसी प्रकार (हृणानस्य) जो कि हमारे सामने लज्जित हो रहा है, उस पर (मन्यवे) क्रोध करने को हम लोगों को (मा रीरधः) कभी मत प्रवृत्त कीजिये

भावार्थ -

  • ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो ! जो अल्पबुद्धि अज्ञानीजन अपनी अज्ञानता से तुम्हारा अपराध करें, तुम उसको दण्ड ही देने को मत प्रवृत्त और वैसे ही जो अपराध करके लज्जित हो अर्थात् तुम से क्षमा करवावे तो उस पर क्रोध मत छोड़ो, किन्तु उसका अपराध सहो और उसको यथावत् दण्ड भी दो

 

​अतः स्पष्ट है, की "वरुणः" यह इस प्रश्न का सही उत्तर है।

वेद Question 10:

'सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षातपो ब्रह्मयज्ञः पृथिवीं धारयन्ति' मन्त्रांशोऽयं कस्मिन् वेदे विद्यते?

  1. ऋग्वेदे
  2. यजुर्वेदे
  3. सामवेदे
  4. अथर्ववेदे

Answer (Detailed Solution Below)

Option 4 : अथर्ववेदे

वेद Question 10 Detailed Solution

प्रश्नानुवाद- 'सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षातपो ब्रह्मयज्ञः पृथिवीं धारयन्ति' यह मंत्रांश किस वेद का है?

स्पष्टीकरण- 'सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षातपो ब्रह्मयज्ञः पृथिवीं धारयन्ति' यह मंत्रांश अथर्ववेद का है।

मन्त्र- सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षातपो ब्रह्मयज्ञः पृथिवीं धारयन्ति। स नो भूतस्य भव्यस्य पत्नयुरुं लोकं पृथ्वी नः कृणॊतु।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत मंत्र अथर्व के 12वें काण्ड में वर्णित पृथ्वी सूक्त का प्रथम मन्त्र है। इस सूक्त में कुल 63 मन्त्र हैं। इस सूक्त के ऋषि अथर्वा तथा देवता भूमि हैं। इसमें अनेक छंदों का प्रयोग किया गया है। 

मंत्रार्थ- सत्य, महत्ता, ऋत, उग्रता, दीक्षा, तपस्या, ब्रह्म और यज्ञ पृथ्वी को धारण करते हैं। भूत और भविष्य की पत्नी वह पृथ्वी हमारे लोक को विस्तृत बना दें। 

अतिरिक्त जानकारी

इस सूक्त के अन्य सूक्तियाँ निम्नलिखित हैं- 

  • यस्यामापः परिचरा: समानीरहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति। (जिस पृथ्वी के चारों ओर विचरण करने वाला जल समान भाव से रात-दिन निर्बाध रूप से प्रवाहित होता है।)
  • माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:। (भूमि माता है, मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ।)
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